Sunday 13 January 2013

EK AUR LAU BUJH GAYI

After horrific rape incident in Delhi wanted to show my grief and pain. This poem is an effort to look inside our hearts and ask some questions.



एक और लौ बुझ गयी मैं बस देखता रहा
बाहर से चुप खड़ा था अन्दर से चीखता रहा

अनजाने डर ने बाँध दिए थे मेरे कदम
कायरता से मेरा साहस व्यर्थ में लड़ता रहा
कोई तो आ जाएगा उस खून से लथपथ के पास
सोचकर यही मैं अपने रास्ते बढ़ता रहा

एक और लौ बुझ गयी मैं बस देखता रहा
बाहर से चुप खड़ा था अन्दर से चीखता रहा

उन दम तोड़ती साँसों की मद्धम आवाज़
मेरे बहरेपन में कहीं गुम हो गयी
छटपटाता देख उसको यूँ सड़क के किनारे
मेरी आँखों का पर्दा और भी गहराता रहा

एक और लौ बुझ गयी मैं बस देखता रहा
बाहर से चुप खड़ा था अन्दर से चीखता रहा


अब पिघलता ही नहीं सामने हो कोई भी मंज़र
दिल को अपने किस कदर मैं पत्थर बनाता रहा
अपनी नज़रों में गिरने पे होती नहीं शर्मिंदगी
इंसान कैसा बन गया हूँ सवाल ये दोहराता रहा

एक और लौ बुझ गयी मैं बस देखता रहा
बाहर से चुप खड़ा था अन्दर से चीखता रहा
 

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